शी के मंसूबों के प्रति रहें सतर्क

शी जिनपिंग ने जिस स्तर की ताकत सत्ता में हासिल कर ली है, वह 1949 में 'जनतांत्रिक गणतंत्र चीन' की स्थापना से लेकर आज तक के इतिहास में केवल दो चीनी नेताओं- माओ जेडोंग और देंग शियाओ पिंग के हाथों में ही रही है। आज की तारीख में शी चीन के बेताज बादशाह बनकर समूची कम्युनिस्ट पार्टी पर हावी हैंवर्ष 1953 में जन्मे जिनपिंग फिलहाल कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना के सेक्रेटरी जनरल होने के अलावा जनतांत्रिक गणतंत्र चीन के राष्ट्रपति और सेंट्रल मिलिट्री कमीशन के चेयरमैन भी हैं। उन्होंने संविधान में संशोधन के जरिए अपनी स्थिति मजबूत करवा ली है ताकि वे अनिश्चितकाल तक सत्ता में बतौर सर्वोच्च नेता बने रह सकें। एक व्यक्ति के हाथ में अत्यधिक ताकत केंद्रित हो जाने से उपजने वाली स्थिति का संज्ञान लेते हुए देंग (जो खुद भी माओ की ज्यादतियों का शिकार रहे थे) ने संविधान में संशोधन करके किसी नेता के दो बार से ज्यादा सत्ता के शीर्ष पर रहने पर रोक लगा दी थी। पूर्ववर्ती दो अति- शक्तिशाली नेताओं-माओ और देंग-की तर्ज पर जिनपिंग ने भी संविधान में अलग ‘शी जिनपिंग विचार' जड़ दिया है।माओ की विदेश नीति जो कुछ तो वामपंथी सिद्धांतों और कुछ उनके निजी विचारों पर आधारित थी, उस पर अमल करने पर खुद उन्होंने एक लीक नहीं पकड़े रखी थी। सोवियत नेताओं जैसे कि स्टालिन, रुशचेव और ब्रझनव के साथ उनके रिश्ते दश्मनी वाली हद तक लेकिन माओ के अवसान के बाद रूस के साथ चीन के संबंधों में धीरे-धीरे बदलाव आने लगा। देंग एक अतियथार्थवादी नेता थे. जिन्होंने चीन की तब की राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य कमजोरियों को स्पष्ट तौर पर जान लिया था। देंग की एक जानी-मानी उक्ति थी 'अपनी ताकत को छुपाकर रखो और सही घडी तक वक्त काटो।' लेकिन जहां एक ओर 1979 में वियतनाम को सबक सिखाने के उद्देश्य से किया गया हमला उल्टे चीन पर भारी पड़ा वहीं दूसरी तरफ देंग की दरदर्शी नीतियां जैसे कि वामपंथ के अतिकट्टर सिद्धांतों पर प्रतिपादन को त्यागना और अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी जगत के साथ सौहार्द बनाकर उनसे मिलने वाले निवेश और तकनीक से भरपूर फायदा लेना, चीन के लिए लाभकारी रहाकमजोर पड़े सोवियत संघ को गोर्बाच्योव के समय में चीन के साथ दोस्ती करने और सीमा पर आपसी मतभेदों का सुलझाने की खातिर समझौता करना पड़ा था. वह भी ज्यादातर चीनी शतों पर। आज पतिन के नेतृत्व वाला रूस न केवल देश में घटती जन्मदर. अत्यधिक शराबखोरी एव नशे की लत से त्रस्त है बल्कि अपनी आर्थिकी के लिए खनिजों और तेल स्रोतों पर बहुत हद तक निर्भर हैइन परिस्थितियों में उसके पास अमेरिका के नेतृत्व वाली पश्चिमी सर्वोच्चता का मुकाबला करने हेतु चीन का कनिष्ठ सहायक होने के अलावा कोई चारा नहीं है। जब देंग ने 1979 में सरकार संचालित आर्थिक सुधारों की शुरुआत की तब चीन की प्रति व्यक्ति आय जापान के मुकाबले 20 फीसदी से भी कम और ब्रिटेन से लगभग आधी थी। लेकिन पिछले तीन दशकों में दहाई के आसपास रही अपनी वार्षिक वृद्धि दर के बूते आज यह बढ़कर लगभग 7000 डॉलर हो गई है। फिलवक्त चीन की आर्थिकी जापान से आगे निकल चुकी है। अनुमानों के अनुसार 2030 के दशक में यह अमेरिकी अर्थव्यवस्था को भी पछाड़ देगी। चीन संसार का सबसे बड़ा निर्यातक देश है। शी के पिता को माओ का कोपभाजन बनकर कुछ साल जेल में गुजारने पड़े थे। बाद में देंग ने उनको फिर से बहाल किया था। स्पष्ट है कि देंग की नीतियों पर चलकर वे अपने देश को दुनिया की सबसे बड़ी ऐसी आर्थिक शक्ति देखना चाहते हैं, जिसके पास वह सैन्य समर्था भी हो, जिसके बूते पर चीन पश्चिमी प्रशांत महासागर से लेकर हिंद महासागरीय इलाके में अपनी श्रेष्ठता स्थापित कर पाए जिनपिंग ने अपने नेतृत्व को चुनौती बन सकने की संभावना रखने वाले सभी प्रभावशाली नेताओं को निस्तेज का डाला है। इस काम में भ्रष्टाचार विरोधी कार्यक्रम पर क्रियान्वयन करते हुए उन सभी नेताओं को निपटा डाला है जो उनकी सर्वोच्चता के लिए खतरा हो सकते थे। जिनपिंग ने संभावित संगठित असहमति का पूर्वाभासी तोड़ करते हुए अनेक उपाय अपनाये हैं, जिनमें इंटरनेट पर कड़ा नियंत्रण, सत्ता में प्रभावशाली पदों पर अपने चमचों को बढ़ावा देना और चुनौती बनने में सक्षम नेताओं को भ्रष्टाचार के इल्जाम लगाकर बाहर करना भी शामिल है। इस मंतव्य को मूर्त रूप देने हेतु उन्होंने अपने सबसे बड़े चारण 70 वर्षीय वांग किशान को भ्रष्टाचार निरोधक दस्ते का प्रमुख और उपराष्ट्रपति नियुक्त किया है। चीन ने अब स्पष्ट कर दिया है कि अपनी सीमा-संबंधी और भू-राजनैतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए अगर उसे जबरदस्ती और ताकत का इस्तेमाल भी करना पड़ा तो वह इसमें गुरेज नहीं करेगा। चीन ने जता दिया है कि दक्षिण कोरिया, जापान, ताईवान, वियतनाम, रुनेई, मलेशिया और इंडोनेशिया के साथ सीमा विवादों पर वह अंतर्राष्ट्रीय समुद्रीय कानुन-नियमों की कोई परवाह नहीं करता। उसने 'आसियान' संगठन में फूट डलवा दी ताकि वे उसके समद्री सीमा- प्रसार अभियान में प्रतिकार न कर पाएं। अब केवल जापान, वियतनाम और इंडोनेशिया ही बचे हैं, जो बेजा चीनी समुद्रीय दावों को चुनौती दे रहे हैं। हिंद महासागर क्षेत्र में म्यांमार के क्याउकपिउ, बांग्लादेश के चिट्टगांव, श्रीलंका में हम्बनतोता, पाकिस्तान में ग्वादर और मालदीव के दिजबउती बंदरगाह पर अपनी श्रेषता कायम करने के अलावा चीन अब दक्षिण एशियाई मुल्कों में अपना प्रभाव बढ़ाने हेतु उनकी लोकतांत्रिक और चुनाव प्रक्रिया में बढ-चढकर दखलअंदाजी करने लगा है। इसका प्रमाण श्रीलंका, नेपाल, मालदीव और बांग्लादेश (जहां इस साल के अंत में आम चनाव होने हैं) में अपनी पंसद के भारत-विरोधी नेताओं को साथ मिलाने और उनको मदद देने के उदाहरणों से मिलता है। पाकिस्तान की थलसेना, वायुसेना, नाभकीय हथियार और मिसाइल कार्यक्रम को सदढता प्रदान करने के बाद चीन अब उसकी नौसैन्य ताकत में इजाफा करने के लिए पनडुब्बियां, फिगेट देने के अतिरिक्त उसे मल्टीपल इंडिपेंडेंटली टार्गेट री-एंटी व्हीकल (एमआईआरवी) तकनीक मुहैया करवाने जा रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि चीन ऐसा कोई मौका नहीं जाना जाता जिससे भारत की सीमाओं पर दबाव सदा बना रहे जैसा कि हाल ही में उसने डोकलाम में किया और चीन प्रत्यक्ष सैन्य कार्रवाई करने से कतर जब तक उसे यह यकीन न हो जाय किमि जैसी सैन्य विफलता की स्थिति भारत केसर की संभावना नहीं है.